आत्महत्या महज एक सूचना है पर उसकी तड़केदार खबर दुसरो को भी उकसाने का करती है काम!

बकलोल : सवाल जिंदा है...

बैतूल। किसी की आत्महत्या महज एक सूचना है या तड़केदार खबर ? यदि महज एक सूचना है तो फिर किसी आत्महत्या को इस तरह रंग रोगन कर क्यो सिंगल कालम की जगज तीन चार कालम पेला जाता है ? आत्महत्या की इन लंबी चौड़ी खबरों से समाज या किसी परिवार या व्यक्ति का कौन भला होता है या कौन सा सरोकार जुड़ता है ? कभी एक अच्छे पाठक की तरह सोचकर देखे कि किसी की आत्महत्या की लंबी चौड़ी खबरों का क्या साइड इफ़ेक्ट भी होता है या नही ? यदि ध्यान से देखेंगे तो यही समझ आएगा कि यह खबरे दुसरो को भी ऐसा ही कदम उठाने के उत्प्रेरित करती है, उसे बल देती है। हैरान परेशान व्यक्ति के मन मे यह भाव पैदा करती है कि अमुक व्यक्ति ने जब ऐसा किया तो मै भी कर लू तो झंझट से ही मुक्ति मिलेगी। आत्महत्या के मामले में एक और पैटर्न ख़बरदारो ने अपना रखा है, वह यह कि व्यक्ति ने किस समस्या से त्रस्त हो कर यह तर8का अपनाया , उस पर फोकस नही करते बल्कि यह बताते है कि उसने कैसे आत्महत्या की ? फंदा बनाने के लिए रस्सी की जगह चुनरी या किस साधन का इस्तेमाल किया, वीडियो बनाकर या सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखकर क्या मैसेज दे गया ? इससे किसी अन्य का क्या सरोकार जुड़ता है यह समझ से परे है ? किसी ने सूदखोर से परेशान होकर आत्महत्या की हो या किसी विवाहिता ने सुसराल पक्ष से तंग आकर ऐसा कदम उठाया है या किसी ने ब्लैकमेलिंग से मजबूर होकर मौत को गले लगाया हो तो समझ भी आता है कि वह खबर हो सकती है , वह भी तब जब खबर में यह स्पष्ट हो कि इस व्यक्ति को सिस्टम, समाज या परिवार से जानकारी होने के बाद भी कोई स्पोर्ट न मिला हो या फिर उसकी मौत के बाद कानून अपनी भूमिका ठीक से न निभा रहा हो । वैसे आत्महत्या की खबरे एक दिन के बाद ही दम तोड़ देती है, हमारी मीडिया के क्राइम मास्टर गोगो बनने वाले रिपोर्टर इसका फॉलोअप ही नही लेते , कोई सवाल ही खड़े नही करते। आत्महत्या के मामलों में बैतूल जैसे कस्बानुमा शहर की रिपोर्टिंग में एक और खूबी यह होती है कि आम की होती तो तड़का जोरदार होता है यदि खास की हो तो बस तो सूचना भी हजम कर जाते है। दरअसल क्राइम रिपोर्टिंग जिस तरह की होती है यह गाय पर निबंध लिखना सबसे आसान है। उसमें कोई दिमाग लगाने की जरूत्त ही नही पड़ती, जितना पुलिस ने बताया उतने का रंगरोगन के साथ उतारा कर दो, न कोई सवाल खड़ा करो न किसी की जबाबदेही तय करो। इससे इन क्राइम रिपोर्टस को फायदा यह है कि किसी से भलाई बुराई का कोई डर नही होता और बिना मेहनत का काम है। वायरलेस सेट वाले किसी पुलिस अधिकारी या थाने में एक दो सिपाही, हवलदार या ए एस आई जैसे से भाई बंदी हो तो सारा कूड़ा करकट ब्रेकिंग या एक्सक्लुसिव के नाम पर ठेलते रहो , कौन बोलने वाला है। वैसे रिपोर्टर जो कर रहा वो तो समझ आता है पर उनके सम्पादक क्या बुद्धि रखते यह भी समझ से परे है। उन्हें यह भी समझ क्यो नही आता कि पति पत्नी के विवाद या प्रेमी प्रेमिका की खटपट में कोई एक आत्महत्या कर ले तो उसकी लंबी चौड़ी तड़केदार खबर से किसका भला होगा। यह सब कर असल मे वे जिम्मेदारों या सिस्टम से सवाल करने से बचने की पत्रकारिता को ही प्रमोट करते है। वैसे जब तक सूचना से सरोकार नही जुड़ता तब तक वह खबर ही नही होती है।

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